Monday, May 31, 2010

पर अफ़सोस! तुम नही आयीं...

शायद मेरे सुनने मे ही कमी होगी,
या ये शाम बिन कहे ही ढल गयी होगी,
तुम आ जाते तो ज़रूर कह ही देता,
शायद कुछ देर दर्द सह ही लेता!

तुमने ताज़ा किए जो जख्म सवेरे मे,
शाम मरहम लगाने तो आ जाती,
दर्द मे मेरे कुछ कमी आती,
याद बरबस पुरानी आ जाती!

पर अफ़सोस! तुम नही आयीं,
साथ अपने दवा नही लायी,

आज फिर ज़ख़्मों से बात कर लूँगा,
अपने कुछ दर्द उनसे कह दूँगा,
उनके जी की सुनूँगा जी भरकर,
अपने जी की कहूँगा जी भरकर,

पर ये चलता रहा अगर यूँ ही,
कुछ दिन और तो फिर समझ लेना,
शायद ये हो कि भूल जाऊं तुमको,
और मुझे हो जाए प्यार ज़ख़्मों से,

फिर जिंदगी सीखूंगा खुद उन्हे सीकर,
उनको अपना अभिन्न हिस्सा कर....!!


6 comments:

  1. सच ! अभी पुरुष में इतनी ताकत नहीं, जो मेरा सामना करे, किसमें है औकात ? http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_31.html मुझे याद किया सर।

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  2. बहुत खूबसूरती से कहे हैं जज़्बात

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  3. अति सुंदर .....
    अच्छा लिखते हैं आप ....स्वागत है .......!!

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  4. पलकजी, दिलीप जी ,जनदुनिया जी ,संगीता जी, आचार्य जी ,
    हरकीरत'हीर' जी आप सभी का खूब खूब आभार..

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