Tuesday, July 20, 2010

मै गंगा हूँ












मै गंगा हूँ
वही गंगा जिसे देवलोक से
भूलोक पर
भागीरथ लाये थे थे
कड़ी तपस्या करके
अपने पूर्वजों के पापों का उद्धार  करने हेतु,
और मैंने भी
सबको मातृत्व प्रदान किया
धर्म को आयाम दिया
भारत को खुशहाली दी
खेतों को हरियाली दी,
मै दौड़ी भारत में उसकी नस बनकर
पर अफ़सोस ये क़ि
आज भागीरथ की संताने
अपने तुच्छ स्वार्थों में फंसकर
घोल रहीं  है ज़हर
मेरी नसों में
मेरे गले  को दबा रहे है
कई कई बांध बनाकर
जिससे मै मरी जा रही हू
पल पल घुट घुट कर
पर जरा विचारो तो
जब नहीं होउंगी मै
कहा होगी सम्रद्धि?
कहाँ  होंगे तीर्थ?
कहाँ  होगा कुम्भ?
कहाँ होगा प्रयाग?
और मुझे कहने दो
क़ि एक भागीरथ लाया मुझे
अपने पूर्वजो के पाप को हरने हित
और अब भागीरथ क़ि संताने
मिटा रही है मुझे
अपनी आने वाली पीढ़ियों को पापमय करने हित
आखिर तब कौन  हरेगा उनके पाप..?

5 comments:

  1. आपकी कविता और उसमें व्यक्त विचार दोनों स्तुत्य हैं...आपकी सोच को नमन....काश गंगा को प्रदूषित करने वाले भी इस बात को समझें...
    नीरज

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  2. aapki aabhari hoon main ,is pavan nadi ka kitna sundar varnan kiya hai ,sach ganga maiya tera pani amrit .

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  3. सार्थक रचना...सब अपने पाप धो कर गंगा के प्रति जो पाप कर रहे हैं वो कहाँ धुलेंगे ?

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  4. नवीन जी भाईसाहब,ज्योति जी,एक विचार ब्लोग वाले भाईसाहब,संगीता जी.. आप सभी का ह्रदय से खूब खूब आभार....आप इसी तरह से अपना स्नेह बनाये रहिये...!!

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