Sunday, January 23, 2011

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के कुछ पत्र

आज स्वतंत्रता संग्राम के महान सेना नायक सुभाष चन्द्र बोस उपाख्य नेता जी का जन्म दिन है ...उन्हें हम सभी का कोटि कोटि नमन !
यहाँ मै उनके द्वारा विभिन्न लोगों को विभिन्न समयों पर (उनके आई0सी0एस० से त्यागपत्र देने तक) भेजे गए पत्रों में से कुछ चुनिन्दा पत्र आप सभी से साझा कर रहा हूँ....!
सन १९१२ में कटक से अपनी माँ को लिखे पत्र में नेता जी लिखते है , " आप माँ  हैं, लेकिन क्या आप  हमारी ही माता हैं ? नहीं , आप  सभी भारतियों की माँ  हैं , और यदि सभी भारतीय आपके पुत्र है  तो क्या  आपके पुत्रों का दुःख आपको विचलित नहीं  करता ? क्या  कोई भी माता  ह्रदयहीन हो सकती है  ?....माँ , तुम अपने बच्चों की  दुखद अवस्था को  अच्छी तरह देखो ! पाप, दुःख, कष्ट, भूख, प्रेम की प्यास, ईर्ष्या, स्वार्थपरता और इन सबसे अधिक 'धर्म का आभाव' ! !.....इन सबने मिलकर उनके अस्तित्व को नारकीय बना दिया हैक्या हमारा देश दिनों दिन और अधिक पतन की गर्त में गिरता जायेगा ? क्या दुखिया भारत माता का कोई भी पुत्र ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह से अपने स्वार्थ को तिलांजलि देकर अपना सम्पूर्ण जीवन माँ की सेवा में समर्पित कर दे !"
इस लम्बे पत्र का अंत बालक सुभाष ने इन पंक्तियों में किया था---
"मेरी प्रभु से प्रार्थना है कि मै सम्पूर्ण जीवन दूसरों की सहायता में बिता सकूँ !"

माँ को लिखे एक अन्य पत्र में वे कहते है कि," इस समय हम शिक्षा प्राप्त कर रहे है और यदि इसका उद्देश्य केवल इतना है कि हमें नौकरी और पैसे मिलें, तो हम इस शिक्षा और अपनी मनुष्यता के योग्य कहाँ सिद्ध हो सकेंगे ?"

सन १९१३ में रांची से लिखे एक पत्र में वे इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते है ----" चाहे मै प्रथम aaun या अंतिम, मैंने यह अनुभव कर लिया है कि अध्ययन ही विद्यार्थी के लिए अंतिम लक्ष्य नहीं है |....विश्वविद्यालय की शिक्षा चरित्र निर्माण में सहायक होती है , और हम किसी के भी चरित्र को उसके कार्यों द्वारा आंक सकते है | कार्य ही चरित्र को व्यक्त करता है | किताबी ज्ञान से मुझे घोर वित्रश्ना है | मै चाहता हूँ चरित्र, विवेक, और कर्म |"

१५ वर्ष के सुभाष का मन जीवन दर्शन के जितने गहरे चिंतन मनन में संलग्न था उसकी झलक उनके इस पत्र में मिलती है ----"मनुष्य जीवन जन्म और मृत्यु का एक अनंत चक्र है, और उसका सार यह है कि हम हरी(प्रभु) के प्रति समर्पित हों सकें | इस समर्पण के बिना जीवन का अर्थ नहीं है |."
३ अक्टूबर १९१४ को कलकत्ता से लिखे अपने पत्र में नेता जी ने प्रेम के उदात्त स्वरुप के प्रति अपनी भावना प्रकट करते हुए लिखा, " सबसे बड़ा उपहार है--- अपना ह्रदय किसी को दे देना | जब यह किया जाता है, तो और कुछ शेष नहीं रहता | और जिसको वह प्राप्त होता है वह अत्यंत सौभाग्यशाली होता है |"
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि नेता जी का यह प्रेम भावना किसी अल्हड युवक का किसी अल्हड युवती के प्रति अनुकूल प्रेम कि भावना नहीं थी बल्कि अपने देश के प्रति अनुकूल प्रेम कि भावना थी |

जब वो आई0सी0एस0 की तैयारी के लिए इंग्लैण्ड गए तब सात दिन बाद ही अपने मित्र हेमंत को लिखते है , "कोई चाहे या न चाहे, इस देश का मौसम जीवन को फुर्तीला बना देता है! यहाँ लोगों को कम में व्यस्त देखना बहुत अच्छा लगता है ! प्रत्येक व्यक्ति समय के मूल्यों के प्रति सचेत है, और जो कुछ होता रहता है, उसके पीछे एक योजना रहती है ! मेरे लिए प्रसन्नता कि इससे अधिक और कोई बात नहीं हो सकती कि गोरे लोग मेरी सेवा में लगे हुए हों, और उन्हें मै अपने जूतों पर पोलिश करता हुआ देखूं !....यहाँ मै देख सकता हूँ कि आदमी को आदमी से कैसे व्यव्हार करना चाहिए ! इनमे बहुत से दोष है, लेकिन बहुत से मामलों में उनके गुणों के कारन हमें उनका आदर करना पड़ता है !"

कैम्ब्रिज से १९ जनवरी १९२० को एक अन्य पत्र में अंग्रेजों की प्रशंशा करते हुए अपने मित्र हेमंत को लिखते है कि ---" इस देश के 'देशी ' लोगों में कुछ गुण हैं जिनके कारन वे इतने ऊँचे उठ सके ! प्रथमतः ; वे घडी की सुई के साथ समय की पाबन्दी रखते हुए हर काम पूरा करते हैं ! द्वितीय , उनमे अदम्य आशावादिता है, जबकि हम जीवन के दुःख के बारे में सोंचते रहते है ! इसके साथ उनमे प्रबल सहज बुद्धि होती है, और वे अपने राष्ट्रीय हितों को भली भांति समझते है !"
यहाँ मै ये बताना चाहूँगा की भले ही नेता जी कुछ मायनों में अंग्रेजों के प्रशंशक थे लेकिन भारतीय संस्कृति और सभ्यता की कीमत पर बिलकुल नहीं !

जब वो आई0सी0एस0 की परीक्षा में सफल विद्यार्थियों में चौथे स्थान पर रहे तो उन्होंने अपने बड़े भाई शरद बोस को पत्र लिखा जिसमे उन्होंने लिखा ," प्रतियोगिता परीक्षा में चौथा स्थान मिलाने के कारन मुझे ढेरों बधाइयाँ मिल रही है ! लेकिन मै नहीं   कह सकता  कि आई0सी0एस0 की श्रेणी में शामिल होने कि आशा से मुझे कोई प्रसन्नता है ! अगर मै इस सर्विस में प्रविष्ट होता हूँ, तो उसी अनमनेपन के साथ होऊंगा जिस तरह मै आई0सी0एस0 कि परीक्षा के लिए पढाई करने में संलग्न हुआ था ! सिविल सर्विस से किसी को भी सभी तरह कि सांसारिक सुख -सुविधाएँ मिल सकती है, लेकिन क्या इन उपलब्धियों के लिए हमें अपनी आत्मा नहीं बेचनी पड़ेगी ?....मेरे व्यक्तित्व का जिस प्रकार निर्माण हुआ है, उसे देखते हुए मुझे सचमुच संदेह है कि मै सिविल सर्विस के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति बन सकूंगा !"


नेता जी आई0सी0एस0 में बनें रहें, इसको लेकर उन पर तरह तरह के दवाव पड़ते रहे ! उन्हें एक सुझाव यह दिया गया कि वे भारत लौटकर आई0सी0एस0 से त्यागपत्र दे ! इस सुझाव के जबाव देते हुए नेता जी ने ६ फरवरी १९२१ को एक पत्र में लिखा है ," आपका यह प्रस्ताव कि मै भारत आकार इस्तीफ़ा दूं, काफी युक्तिसंगत प्रस्ताव है ! लेकिन इसके विरुद्ध मुझे एक या दो बातें कहानी है ! पहली बात तो यह कि मेरे लिए संविदा पर, जिसे मै गुलामी कि निशानी मानता हूँ, हस्ताक्षर करना बहुत कष्टदायक होगा ! दूसरी बात यह कि यदि मै फ़िलहाल सर्विस को स्वीकार कर लूं, तो दिसम्बर या जनवरी से पहले घर नहीं लौट सकता, क्यूंकि सामान्यतः इतना समय तो मुझे देना ही होगा ! अगर मै अभी इश्तीफा दे देता हूँ तो मै जुलाई में लौट सकता हूँ ! छः महीने में गंगा से बहुत पानी बह चुका होगा ! उचित समय पर पर्याप्त प्रत्युत्तर न मिलने से सम्पूर्ण आन्दोलन का जोर घट सकता है, और अगर प्रत्युत्तर बहुत देर से मिला, तो हो सकता है कि वह प्रभावहीन हो जाये ! मेरा विश्वाश है कि इस प्रकार का एक और आन्दोलन प्रारंभ करने में वर्षों लग जाएँ !"


नेता जी जहाँ एक तरफ आई0सी0एस0 से त्यागपत्र देने का निर्णय कर रहे थे, वही दूसरी तरफ इस बात की भी तैयारी कर रहे थे कि उन्हें इसके बाद क्या करना है ? इसके लिए उनकी द्रष्टि देशबंधु चितरंजन दास पर गई जो अपनी लाखों रुपये कि मासिक आय वाली वकालत छोड़कर स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे ! इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि क्यूँ न मै स्वयं को देशबंधु के हाथों में समर्पित कर दूं ...इस हेतु नेता जी ने देशबंधु चितरंजन दास को १६ फरवरी १९२१ को एक पत्र लिखा जिसमे नेता जी लिखते है ,----
" मै अच्छी तरह से जनता हूँ कि यदि सर्विस छोड़ने के बाद मै दृढ संकल्प के साथ राष्ट्र कि सेवा में समर्पित हो जाऊं, तो मुझे करने के लिए बहुत कुछ होगा, जैसे नेशनल कालेज में अध्यापन, पुस्तकों और समाचार पत्रों में लेखन और प्रकाशन , ग्राम समितियों का संगठन तथा सर्वमान्य लोगों में शिक्षा का प्रसार आदि ! ....मै यहाँ रहते हुए कल्पना नहीं कर सकता कि इस समय देश में मेरे लिए कौन कौन से उपयुक्त कार्य है ! लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि स्वदेश लौटने के बाद मै दो तरह के काम हाथ में ले सकता हूँ ! एक तो कलकत्ता में पढ़ाने  का कम और दूसरा अखबारों में लिखने का !....निजी तौर पर मै महसूस करता हूँ कि यदि आप 'स्वराज्य' का अंग्रेजी संस्करण निकालें तो मै उसके संपादक के रूप में काम कर सकता हूँ ! इसके आलावा मै नेशनल कोलेज में जूनियर कक्षाओं को भी पढ़ा सकता हूँ !....यदि आप किसी को पत्रकारिता के लिए इंग्लैण्ड भेजना चाहते है, तो मै इसके लिए अपने आपको प्रस्तुत करता हूँ !"

अपने २ मार्च १९२१ के पत्र में नेता जी ने अपने वेतन के बारे में लिखते है, "मेरे लिए सर्विस छोड़ने का अर्थ गरीबी की प्रतिज्ञा करना है ! इसलिए मै यह कतई जिक्र नहीं करूँगा कि मुझे क्या वेतन मिले ! आपसे उतनी रकम काफी होगी, जितने से मेरा गुजरा हो सके !"

 सात महीने के उहापोह के बाद अंततः नेता जी ने २४ अप्रैल १९२१ भारत मंत्री ई0एस0मंतेग्यु को अपना त्यागपत्र भेज दिया !

अब नेता जी ने अपने जीवन की दिशा निश्चित कर ली थी ! त्यागपत्र के तुरंत बाद उन्होंने अपने मित्र चारुचंद्र गांगुली को लिखते है ,--"तुम्हे मालूम ही है कि मै पहले एक बार कर्तव्य की पुकार पर जीवन जलयान का यात्री बना था, अब वह जहाज एक ऐसे बंदरगाह पर पहुँच गया है, जहाँ अपार आकर्षण है ! जहाँ सत्ता, संपत्ति, और समृद्धि संकेत मात्र से मेरी अपनी हो सकती है ! लेकिन मेरे अंतरतम से आती आवाज मुझसे कहती है 'तुम्हे इससे कोई भी सुख नहीं मिलेगा ! तुम्हारे उल्लास की राह है -- महान सागर की उत्ताल तरंगों के साथ-साथ तरंगित होते रहना !आज उसी पुकार का प्रत्युत्तर देते हुए मै फिर अपने जीवन-जलयान कि पतवार प्रभु के हाथ सौपकर यात्रा पर निकल पड़ा हूँ, क्यूंकि वही जानते है कि यह जहाज किस किनारे जाकर लगेगा !"

इस प्रकार एक तरह से नेता जी ने अपने जीवन के एक अध्याय को पूर्ण करके अपने मित्र दिलीप से ९० पौंड उधार लेकर भारत को रवाना हुए और २२ महीने बाद १६  जुलाई १९२१ को नेता जी ने भारत भूमि पर कदम रखे..!!
!!जय हिंद!!

4 comments:

  1. यह विचार इतने सशक्त हैं कि आने वाले भविष्य की परिभाषित करने की क्षमता है इनमें।

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  2. बढिया सामयिक आलेख. आभार.

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  3. देश का दुर्भाग्य स्वतंत्रता के जल्दबाजी में स्वार्थ में अँधा,बहरा,गूंगा, हो गया | जो नेता जी की बात को नहीं समझ सका | आज हम दुनिया के सामने झूठी स्वतंत्रता की शान बनाए खड़े हैं ?
    सोचे,समझें ,गुने बदले | धन्यबाद

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