Tuesday, September 17, 2019

छिछोरे- फिल्म समीक्षा

#Chhichhore
#MovieReviewBySanuShukla

नितेश तिवारी निर्देशित यह फ़िल्म “छिछोरे” बहुत हद तक असल ज़िंदगी के प्लॉट के इर्द गिर्द ही घूमती है और एक महत्वपूर्ण संदेश देने में भी सफल होती है।
“हम सभी अपनी ज़िंदगी में सक्सेस के बाद के प्लान तय करते है। मगर ये कोई नही तय करता कि अगर फ़ेल्योर हुयी तब कैसे निबटेंगे” ये कहकर अनी फूट फूट कर रो पड़ता है। अनी (सुशांत सिंह) जिसका बेटा एक नामी गिरामी इंजीरियरिंग परीक्षा में सफल न हो सकने के कारण बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या करने का प्रयास कर चुका है और अभी अस्पताल में ज़िंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा है...या यूँ कहे वह ज़िंदगी के लिए लड़ना ही नही चाहता है और डाक्टर के अनुसार जब तक पेशेंट ख़ुद से अपनी ज़िंदगी के लिए नही लड़ेगा इस हालत में दवाइयाँ बहुत कारगर नही साबित हो पायेंगी।
ऐसे में अपने बेटे को ज़िंदगी के प्रति एक आशा की किरण देने हेतु अनी अपने इंजीनियरिंग के दिनो के दोस्तों को जो कि देश विदेश में सेटल हैं, को इमर्जेंसी कॉल देकर बुलाता है।
सभी के साथ जिसमें उससे अलग रह रही अनी की पत्नी माया (श्रद्धा कपूर) के साथ अनी अपने कालेज़ के दिनो को याद कर अपने बेटे को सुनाता है कि कैसे वह सभी अपने कालेज़ में खेलों के मामले में गैंग आफ लूजर्स हुआ करते थे और फिर किस तरह से अनी ने उन सबको यह विश्वाश दिलाया कि हम लोग यह लूजर्स का टैग हटाएँगे...
और एक एक करके अनी अपने कालेज़ वाली कहानी के किरदारों से जो स्वयं अनी की एक कॉल पर अनी के पास मौजूद हैं, उन सबसे अपने बेटे को मिलवाता है। अनी के इस होस्टलर गैंग में पोर्न का लती जिसे सब ‘सेक्सा’ (वरुण शर्मा), छूटते ही गाली से नवाजने में माहिर ‘एसिड’ (नवीन पोलिशेट्टी), हर पल नशे में धुत्त, दारू का शौक़ीन ‘बेवड़ा’ (सहर्ष शुक्ला), ‘मम्मी’ (तुषार पांडेय), और ‘सबका बाप’ इस नाम से कुख्यात ‘डेरिक’ (ताहिर राज भसीन) मुख्य रूप से शामिल थे।
अपने कालेज़ में लूजर्स के रूप में कई मौक़ों पर सार्वजनिक रूप से बेज्जती का सामना कर चुके इन होस्टल नम्बर 4 के इस गैंग ने यही तरीक़ा निकाला कि अगर इस लूजर्स के टैग से मुक्ति पानी है तो होने वाली कालेज़ स्पोर्ट्स चैम्पियनशिप में विजेता बनना ही पड़ेगा। और यह इतना आसान तो नही था जबकि पिछले 15 सालों से होस्टल4 की टीम सबसे निचले पायदान पर आती रही थी और दूसरा यह कि उनका प्रमुख मुक़ाबला था होस्टल10 की टीम से जिसको लीड कर रहा था तेज़ तर्रार खिलाड़ी रैगी (प्रतीक बब्बर)।
एक फ़िल्म के रूप में छिछोरे भूत और भविष्य में सामंजस्य बिठाती नज़र आती है और आप कालेज़ लाइफ़ व उसके बाद की लाइफ़ दोनो एक ही मूवी में देख पायेंगे। इन दोस्तों के इस अप्रत्याशित रियूनियन ने ज़िंदगी और मौत से लड़ रहे राघव का ज़िंदगी के प्रति नज़रिया भी बदल देता है। चूँकि होस्टल लाइफ़ पर बनी इस फ़िल्म में कहीं कहीं आपको 3 इडियट की झलक भी मिलेगी बावजूद इसके छिछोरे ख़ुद के उद्देश्य में सफल होती है और यह हर उस दर्शक को एक संदेश देती हुयी भी सफल होती है कि, जिनके घर में बच्चे बड़े हो रहे हैं...कि जो अपने लिए कभी तैयार फ़्यूचर प्लान जो कि ख़ुद पूरे नही कर पाये अब वो अपने बच्चों पर थोप कर उनसे पूरे करवाना चाहते हैं....उन्हें भी देखनी चाहिए जो किसी भी तैयारी में लगे हैं और जिन्होंने सिर्फ़ सफलता का ही प्लान किया है। जो अपनी होस्टल लाइफ़ को फिर से याद करना चाहते हैं और वो भी जो जानना चाहते हैं होस्टल लाइफ़ के बारे में...वो भी इसे ज़रूर देखें।
कुल मिलाकर यह फ़िल्म आपको पूरे समय ज़बरदस्त हास्य व भावुक कर देने वाले दृश्यों से बांधे रखेगी।
इसके संवाद भी इस फ़िल्म को दर्शकों से जोड़ते हैं जिनमे प्रमुख हैं रूप से हैं..
* कोई भी चीज़ इतनी नही बिगड़ती कि उसे सम्भाला न जा सके।
* दर्द हमें दर्द तब दे सकता है कि जब हम ख़ुद दर्द को दर्द देने की इजाज़त दें।
* जब वर्क को टाइम चाहिये था तब फ़ैमिली ने एडजस्ट किया...अब जब फ़ैमिली को टाइम चाहिये है तब वर्क को एडजस्ट करना ही पड़ेगा।
* तुम्हारा रिज़ल्ट यह डिसाइड नही करता कि तुम लूज़र हो या नही...तुम्हारी कोशिश यह डिसाइड करती है कि तुम लूज़र हो या नही।
* हम हार जीत, सक्सेस फ़ेल्योर में इतना उलझ जाते हैं कि हम भूल गये हैं ज़िंदगी जीना।
* हमने बच्चों को ये तो बताया कि पास होने के बाद क्या-क्या करना है पर फेल होने के बाद का कोई प्लान बनाया ही नहीं!
* शेंपेन की बोतल राघव को देने के बाद मैंने अपने बेटे (राघव) को कहा कि जैसे ही वो एग्जाम क्लियर कर लेगा, बाप बेटे साथ बैठकर सेलिब्रेट करेंगे। लेकिन मैंने ये तो उससे कहा ही नहीं कि अगर फ़ेल हो गया तो हम क्या करेंगे?"
* दस लाख बच्चों में से दस हज़ार बच्चे ही पास होते हैं पर बचे हुए नौ लाख नब्बे हज़ार बच्चों के पास कोई प्लान है ही नहीं।
फ़िल्म का संगीत भी इस फ़िल्म के साथ सामंजस्य बिठाता हुआ चलता है और किसी भी गाने में ये नही लगता कि इसे ज़बरदस्ती डाला गया है।
एक चीज़ जो अखरने वाली है वो है इस फ़िल्म का टाइटल....”छिछोरे” जबकि पूरी फ़िल्म में छिछोरेपने जैसा कुछ भी नही था....शायद इसी टाइटल के कारण ही गम्भीर दर्शकों का एक बहुत वर्ग इस फ़िल्म के शुरुआती दो दिन दूर रहा। आप फ़िल्म के नाम से कल्पना ही नही कर सकते कि यह फ़िल्म इतना महत्वपूर्ण संदेश समाज को देती हुयी सफल हो पा रही है। आज रविवार है...जाइये आप भी अपने परिवार के साथ इसे देख आइये..अच्छी फ़िल्मे वैसे भी कम बन रही इन दिनो। मेरी तरफ़ से 8/10 रहेगा इस फ़िल्म के लिये।
- Adv Sanu Shukla
#MovieReviewBySanuShukla

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