दूर तक फैला घना कुहासा है,
देता कुछ नहीं दिखाई है,
फिर आज तेरे बच्चों ने ही,
ऐ भारत माँ तेरी हंसी उड़ाई है,
संस्कृतियाँ हो रही शून्य है,
पश्चिमी झंझावातों में पड़कर,
जो चले आ रहे मानव मूल्य सदियों से,
बिक रहे आज वो कौड़ी कौड़ी,
हाय यहाँ कितने ही आक्रांताओं ने,
तुझ पे मन भर के अत्याचार किये,
किन्तु सहे तूने धीरज धर,
क्यूंकि तेरे बच्चे थे उनसे डटकर जूझे ,
पर आज त्रस्त है तू अपनी निज संतति से,
और व्यथित तू उनके काले कृत्यों से,
कर रही पुकार तू बस यही बार बार,
हे तिलक बोस, अशफाक, भगत,..
अपनी माँ क़ी सुधि धारों,
करने घावों से मुक्त मेरे तन को,
इस भारत भूमि पर पुनः पधारो...!!
बहुत सुन्दर रचना है!
ReplyDelete--
मनभावन सी!
बहुत सुन्दर ...हम भारतियों को जगाना ही होगा जल्दी से ....
ReplyDeleteभाई ,अच्छे भाव हैं । कविता भी मन से लिखी है ।
ReplyDeleteबधाई !
छंद को साधने की ओर ध्यान दें , तो और श्रेष्ठ रच पाएंगे ।
शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
नमस्ते जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कबिता भगवान करे लक्ष्य पूरा हो .
धन्यवाद