पिछले तीन महीने मे मेरे साथ दो घटनाए घटी या यूँ कहूँ की दो मानसिक दुर्घटनाएँ घटी...वे दोनो घटनाए जिन्होने मुझे काफ़ी उद्वेलित किया उनका जिक्र आज मै आपके सामने रहा हू...
पहली घटना लगभग तीन महीने पहले जब मै एक खिलौनों की दुकान मे था तब हुयी...वहां एक माँ अपनी बिटिया के साथ दुकान मे आईं.....और अपनी बिटिया से बोलीं...,"पिंकी बेटा पसंद करो जो खिलौना तुम्हे चाहिए हो....!"
पर उनकी बिटिया ने चौकाने वाला उत्तर दिया और वो ये की,"मम्मी मुझे कुछ
भी नही चाहिए,..."
"क्यूँ,,अभी कुछ दिन पहले ही तो रेलगाड़ी वाले खिलौने के लिए ज़िद कर रही थी तुम...अब क्या हुआ?"उन माँ ने कहा.. |
तब पिंकी जिसकी उमर लगभग ७ साल होती उसने कहा,"माँ अब मुझे खिलौने नही चाहिए.......अब आप मेरे दहेज के लिए रुपये बचाईए....नही तो मुझे भी पड़ोस वाली वंदना आंटी की तरह ही जला दिया जाएगा.."
इतना सुनते ही दुकान मे मौजूद सभी लोग हँसने लगे....पर क्या ये बात हँसने की थी....?
खैर ये वाक़या मन से कुछ ओझिल हुआ ही था कि अभी कुछ दिनों पूर्व मै जब गाज़ियाबाद में अपने एक मित्र के घर ठहरा हुआ था | वहां दोपहर मे उनकी बिटिया अपने बड़े भाई के साथ अपने कमरे मे खेल रही थी...की अचानक उनकी बिटिया के बहुत ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ आने लगी....घर के सभी लोगों के साथ मै भी वहां पहुचा...उसकी माँ ने पूछा कि क्या हुआ परी..?उसने कहा की, भैया ने मेरी गुड़िया को जला दिया है..."
क्यूँ जलायी तुमने इसकी गुड़िया करन .?"
करन ने कहा की “मैने इसकी गुड़िया इसलिए जलायी क्यूंकी इसकी गुड़िया की शादी मेरे गुड्डे से हुई थी और इसने मेरे गुड्डे को खूब सारा दहेज नही दिया था...|"किसी तरह से उस बच्ची को चुप कराया गया...फिर उसके बाद ये बात भी आस पड़ोस में बस हँसने का माध्यम बन कर रह गयी..|
कितनी सोचनीय और चिंता की बात है कि अब ये दानव दहेज़ बच्चो के कोमल ह्रदय में भी घर कर रहा है..
वास्तव में हमारे यहाँ भारत में प्राचीन काल से ही इस दहेज़ का उल्लेख मिलता है..चाहे वह सतयुग हो,त्रेता युग हो,या फिर द्वापर युग हो.....किन्तु तब इसका रूप बिलकुल अलग था,|भारतीय संस्कृति में पुत्री के विवाह को कन्या दान कहा गया है...साथ ही हमारे यहाँ दान को सजाकर भेंट करने की भी परम्परा रही है...|इसी लिए माता-पिता विवाह के समय अपनी कन्या को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करते थे और उसके उपयोग की सभी वस्तुए भी साथ में देते थे...|यह था दहेज़ का प्राचीन रूप|
परन्तु आज ये दहेज़ दानव दहेज़ का रूप ग्रहण कर चूका है| पहले कन्या के पिता पर इसके लिए कोई बंधन नहीं था...वही आज ये कन्या के पिता की अनिवार्य विवशता बन चुका है...|
दहेज शब्द संस्कृत के 'दायज:'(दाय+ज:) का ही बिगड़ा हुआ रूप है,जिसमे "दाय" का अर्थ होता है उपहार या दान और "जा" का अर्थ है कन्या(पुत्री)|इस प्रकार दायज का अर्थ कन्या को दिया गया उपहार या दान है....|मूलतः इसमे स्वेच्छा का भाव निहित था किंतु आज दहेज का अर्थ इससे नितांत भिन्न हो गया है |यह अब वर मूल्य का रूप धारण कर चुका है...|ना जाने कितनी ही नवयुवतियाँ प्रतिदिन इस क्रूर दानव दहेज के हाथो काल के गाल मे समा जाती है...|कितनी दुखद बात है की जो जननी बनती है समाज उन्हें अपने तुच्छ,घ्रणित लालच के लिए जीने का अधिकार भी नहीं दे रहा है...|
आज यह समस्या इतना व्यापक रूप धारण कर चुकी है की इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करना और इसका हल खोजना अत्यावश्यक हो गया है,अन्यथा समाज की नैतिक मान्यताये तो नष्ट होंगी ही साथ में मानव मूल्य भी समाप्त हो जायेंगे....|
बहुत दुखद बात है। किन्तु चलिए अब बच्चियां पहले से ही तैयार रहेंगी और बच्चे भी अपना भावी रोल सीख रहे हैं। परम्परा चलती रहेगी। इन्हें बनाए रखना आवश्यक है अन्यथा हमारी सभ्यता का क्या होगा? जय खाप, जय जाति, जय हमारी प्रथाएँ! कुछ स्त्रियाँ जल मर जाएँ तो भी क्या है!
ReplyDeleteघुघूती बासूती
agreed
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति !
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